Lekhika Ranchi

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प्रेमा--मुंशी प्रेमचंद



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पत्नी के अधरों पर मन्द मुसकान और ऑंखों में प्रेम देखकर बाबू साहब के चढ़े हुए तेवर बदल गये। भड़कता हुआ क्रोध ठंडा पड़ गया और जैसे नाग सूँबी बाजे का शब्द सुनकर थिरकने लगता है और मतवाला हो जाता उसी भॉँति उस घड़ी अमृतराय का चित्त भी किलोलें करने लगा। आव देखा न ताव। कोट पतलून, जूते पहने हुए रसोई में बेधड़क घुस गये। पूर्णा हॉँ,हॉँ करती रही। मगर कौन सुनता है। और उसे गले से लगाकर बोले—मै तुमको यह न करने दूगॉँ।

पूर्णा भी प्रति के नशे में बसुध होकर बोली-मैं न मानूँगी।
अमृत०—अगर हाथों में छाले पड़े तो मैं जुरमाना ले लूँगा।
पूर्णा—मैं उन छालों को फूल समझूँगी, जुरामान क्यों देने लगी।
अमृत०—और जो सिर में धमक-अमक हुई तो तुम जानना।
पूर्णा-वाह ऐसे सस्ते न छूटोगे। चन्दन रगड़ना पड़ेगा।
अमृत—चन्दन की रगड़ाई क्या मिलेगी।
पूर्णा—वाह (हंसकर) भरपेट भोजन करा दूँगी।
अमृत—कुछ और न मिलेगा?
पूर्णा—ठंडा पानी भी पी लेना।
अमृत—(रिसियाकर) कुछ और मिलना चाहिए।
पूर्णा—बस,अब कुछ न मिलेगा।
यहॉँ अभी यही बातें हो रही थीं कि बाबू प्राणनाथ और बाबू जीवननाथ आये। यह दोनों काश्मीरी थे और कालिज में शिक्षा पाते थे। अमृतराय क पक्षपातियों में ऐसा उत्साही और कोई न था जैसे यह दोनों युवक थे। बाबू साहब का अब तक जो अर्थ सिद्ध हुआ था, वह इन्हीं परोपकारियों के परिश्रम का फल था। और वे दोनों केवल ज़बानी बकवास लगानेवाली नहीं थे। वरन बाबू साहब की तरह वह दोनों भी सुधार का कुछ-कुछ कर्तव्य कर चुके थे। यही दोनों वीर थे जिन्होंने सहस्रों रुकावटों और आधाओं को हटाकर विधवाओं से ब्याह किया था। पूर्णा की सखी रामकली न अपनी मरजी से प्राणनाथ के साथ विवाह करना स्वीकार किया था। और लक्ष्मी के मॉँ-बॉँप जो आगरे के बड़े प्रतिष्ठत रईस थे, जीवननाथ से उसका विवाह करने के लिए बनारस आये थे। ये दोनों अलग-अलग मकान में रहते थे।
बाबू अमृतराय उनके आने की खबर पाते ही बाहर निकल आये और मुसकराकर पूछा—क्यों, क्या खबर है?
जीवननाथ—यह आपके यहॉँ सन्नाटा कैसा?
अमृत०—कुछ न पूछो, भाई।
जीवन०—आखिर वे दरजन-भर नौकरी कहाँ समा गये?
अमृत०—सब जहन्नुम चले गये। ज़ालिमों ने उन पर बिरादरी का दबाव डालकर यहॉँ से निकलवा दिया।
प्राणनाथ ने ठट्ठा लगाकर काह---लीजिए यहॉँ भी वह ढंग है।
अमृतराय—क्या तुम लोगों के यहॉँ भी यही हाल है।
प्राणनाथ---जनाब, इससे भी बदतर। कहारी सब छोड़ भागो। जिस कुएसे पानी आता था वहॉँ कई बदमाश लठ लिए बैठे है कि कोई पानी भरने आये तो उसकी गर्दन झाड़ें।
जीवननाथ—अजी, वह तो कहो कुशल होयी कि पहले से पुलिस का प्रबन्ध कर लिया नहीं तो इस वक्त शायद अस्पताल में होते।
अमृतराय—आखिर अब क्या किया जाए। नौकरों बिना कैसे काम चलेगा?
प्राणनाथ—मेरी तो राय है कि आप ही ठाकुर बनिए और आप ही चाकर।
ज़ीवनाथ—तुम तो मोटे-ताजे हो। कुएं से दस-बीस कलसे पानी खींच ला सकते हो।
प्राणनाथ—और कौन कहे कि आप बर्तन-भॉँडे नहीं मॉँज सकते।
अमृत-अजी अब ऐसे कंगाल भी नहीं हो गये हैं। दो नौकर अभी हैं, जब तक इनसे थोड़ा-बहुत काम लेंगे। आज इलाके पर लिख भेजता हूँ वहॉँ दो-चार नौकर आ जायँगे।
जीवन—यह तो आपने अपना इन्तिज़ाम किया। हमारा काम कैसे चले।
अमृत.—बस आज ही यहॉँ उठ आओ, चटपट।
जीवन.—यह तो ठीक नहीं। और फिर यहॉँ इतनी जगह कहॉँ है?
अमृत.—वह दिल से राज़ी हैं। कई बेर कह चुकी हैं कि अकेले जी घबराता है। यह ख़बर सुनकर फूली न समायेंगी।
जीवन—अच्छा अपने यहॉँ तो टोह लूँ।
प्राण—आप भी आदमी हैं या घनचक्कर। यहॉँ टोह लूँ वहॉँ टोह लूँ। भलमानसी चाहो तो बग्घी जोतकर ले चलों। दोनों प्राणियों को यहॉँ लाकर बैठा दो। नहीं तो जाव टोह लिया करो।
अमृत—और क्या, ठीक तो कहते हैं। रात ज्यादा जायगी तो फिर कुछ बनाये न बनेगी।
जीवन—अच्छा जैसी आपकी मरज़ी।
दोनों युवक अस्तबल में गये। घोड़ा खोला और गाड़ी जोतकर ले गये। इधर अमृतराय ने आकर पूर्णा से यह समाचार कहा। वह सुनते ही प्रसन्न हो गई और इन मेहमानों के लिए खाना बनाने लगी। बाबू साहब ने सुखई की मदद से दो कमरे साफ़ कराये। उनमें मेज, कुर्सियाँ और दूसरी जरुरत की चीज़ें रखवा दीं। कोई नौ बजे होंगे कि सवारियॉँ आ पहुँचीं। पूर्णा उनसे बड़े प्यार से गले मिली और थोड़ी ही देर में तीनों सखियॉँ बुलबुल की तरह चहकने लगीं। रामकली पहले ज़रा झेंपी। मगर पूर्णा की दो-चार बातों न उसका हियाव भी खोल दिया।
थोड़ी देर में भोजन तैयार हा गया। ओर तीनों आदमी रसोई पर गये। इधर चार-पॉँच बरस से अमृतराय दाल-भात खाना भूल गये थे। कश्मीरी बावरची तरह तरह क सालना, अनेक प्रकार के मांस खिलाया करता था और यद्यपि जल्दी में पूर्णा सिवाय सादे खानों के और कुछ न बना सकी थी, मगर सबने इसकी बड़ी प्रशंसा की। जीवननाथ और प्राणनाथ दोनों काशमीरी ही थे, मगर वह भी कहते थे कि रोटी-दाल ऐसी स्वादिष्ट हमने कभी नहीं खाई।
रात तो इस तरह कटी। दूसर दिन पूर्णा ने बिल्लो से कहा कि ज़रा बाज़ार से सौदा लाओ तो आज मेहानों को अच्छी-अच्छी चीज़े खिलाऊँ। बिल्लो ने आकर सुखई से हुक्म लगाया। और सुखई एक टोकरा लेकर बाज़ार चले। वह आज कोई तीस बरस से एक ही बनिये से सौदा करते थे। बनिया एक ही चालाक था। बुढ़ऊ को खूब दस्तूरी देता मगर सौदा रुपये में बारह आने से कभी अधिक न देता। इसी तरह इस घूरे साहु ने सब रईसों को फॉँसा रक्खा था। सुखई ने उसकी दूकान पर पहुँचते है टाकरा पटक दिया और तिपाई पर बैठकर बोला—लाव घूरे, कुछ सौदा सुलुफ तो दो मगर देरी न लगे।
और हर बेर तो घूरे हँसकर सुखई को तमाखू पिलाता और तुरन्त उसके हुक्म की तामील करने लगता। मगर आज उसने उसको और बड़ी रुखाई से देखकर कहा—आगे जाव। हमारे यहॉँ सौदा नहीं है।
सुखई—ज़रा आदमी देख के बात करो। हमें पहचानते नहीं क्या?
घूरे—आगे जाव। बहुत टें-टें न करो।
सुखई-कुछ मॉँग-वॉँग तो नहीं खा गये क्या? अरे हम सुखई हैं।
घूरे—अजी तुम लाट हो तो क्या? चलो अपना रास्ता देखो।
सुखई—क्या तुम जानते हो हमें दूसरी दुकान पर दस्तूरी न मिलेगी? अभी तुम्हरे सामने दो आने रूपया लेकर दिखा देता हूँ।
घूरे—तूम सीधे से जाओगे कि नहीं? दुकान से हटकर बात करो। बेचारा सुखई साहु की सइ रुखाई पर आर्श्चय करता हुआ दूसरी दुकान पर गया। वहॉँ भी यही जवाब मिला। तीसरी दूकान पर पहुँचा। यहॉँ भी वही धुतकार मिली। फिर तो उसने सारा-बाज़ार छान डाला। मगर कहीं सौदा न मिला। किसी ने उसे दुकान पर खड़ा तक होने न दिया। आखिर झक मारकर-सा मुँह लिये लौट आया और सब समाचार कह। मगर नमक-मसाले बिना कैसे काम चले। बिल्लो ने वहा, अब् की मैं जाती हूँ। देखूँ कैसे कोई सौदा नहीं देता। मगर वह हाते ज्यों ही बाहर निकली कि एक आदमी उसे इधर-उधर टहलता दिखायी दिया। बिल्लो को देखते ही वह उसके साथ हो लिया और जिस जिस दुकान पर बिल्लो गई वह भी परछाई की तरह साथ लगा रहा। आखिर बिल्लो भी बहुत दौड़-धूप कर हाथ झुलाते लौट आयी। बेचरी पूर्णा ने हार कर सादे पकवान बनाकर धर दिये।
बाबू अमृतराय ने जब देखा कि द्रोही लोग इसी तरह पीछे पड़े तो उसी दम लाला धनुषधारीलाल को तार दिया कि आप हमारे याहॉँ पॉँच होशियार खिदमतगार भेज दीजिए। लाला साहब पहले ही समझे हुए थे कि बनारस में दुष्ट लोग जितना ऊधम मचायें थोड़ा हैं। तार पाते ही उन्होंने अपने अपने होटल के पॉँच नौकरों को बनारस रवाना किया। जिनमें एक काश्मीरी महराज भी थी। दूसरे दिन यह सब आ पहुँचे। सब के सब पंजाबी थे, जो न तो बिरादरी के गुलाम थे और न जिनको टाट बाहर किये जाने का खटका था। विरोधियों ने उसके भी कान भरने चाहे। मगर कुछ दॉँव चला। सौदा भी लखनऊ से इतना मॉँगा लिया जो कई महीनों को काफ़ी था।

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